स्वागतम

"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |

गुरुवार, 30 जुलाई 2009

लिट्टी-चोखा की गाथा




भड़भुन्जे में चना भुन्जाया,
और मशीन से जब की पिसाई
थोडा छिलका, थोड़े दाल की
जली हुयी सोंधी खुशबू आई |

रूप परिवर्तन हुआ चने का
देख सबका जी ललचाया,
बिहार का होर्लिक्स है ये
नाम इसका सत्तू कहलाया |


नमक,तेल,अजवायन औ जीरा
गोलमिर्च का स्वाद रसीला ,
प्याज,लहसुन जो पड़ जाये तो
बने सत्तू का स्वाद रंगीला |

उधर अलग बर्तन में
गुंथे आटे
छोटे छोटे लोई में
फिर उसको बांटे |

गोल लोई का लोटा बनायें
जिस से सत्तू उसमे समाये,
करें मुंह बंद आटे से
फिर लोई गोल की जाये |

उधर कंडे में ताव है आया
जिसको अलग था अलाव जलाया,
बैगन को दहकते अलाव पर डाला ,
पक जो गया तो उसे उतारा |

उलट पलट लोई को सेंका
और बदलते रूप को देखा
सींक जब गयी हर लिट्टी
कपडे से झाड़ा राख औ मिटटी |

अब बैगन के भुरते की
बारी आया ,
बिहार में जो
चोखा कहलाया |

जले हुए छिलके को हटाया
उसमे नमक और तेल मिलाया
कटे हुए बारीक़ लहसुन और प्याज
मिला टमाटर है अलग अंदाज़

भरी कटोरी घी की सजाई
आम के अचार की भी बारी आई
लिट्टी चोखा को ऐसे ही बनायें
जब खाएं तो, विधिवत खाएं |

उदर रोग निस्तारण करता
श्री लिट्टी महाराज ,
पेट को हल्का ,शरीर स्फूर्त
सफल होए सब काज |
(समस्त लिट्टी प्रेमियों को समर्पित)

शनिवार, 18 जुलाई 2009

जीवन गीत

हर चेहरे पर एक चेहरा है

ढूंढोगे क्या परछाई ,

भेद बहुत ही गहन है

जैसे अंध कूप की गहराई

मन के भाव को क्या जानोगे

विषवृक्ष पल रहा अंतर में

अन्तः का शिव शव हो चूका

और ढूंढते हैं मंदिर में

क्या मरघट पे अमराई की

शीतल छाया मिल पायेगी,

अन्तः ताप से दहक रहे हो

निश्ताप शांति भी घुल जायेगी

निष्प्राण करो अपने भावों को

जो पाल रखा अपने उर में,

अंगीकार करो खुद से खुद को

हो नाद तुम्हारे ही स्वर में

ढूंढो खुद को मन की गहराई में

पूछो खुद से तुम क्या हो,

देखो अपना प्रतिबिम्ब जैसे

कोई चेहरा नया हो

खुद से खुद को जोड़ना

जीवन का आधार यही है,

जो न जुड़ता खुद से

वो फिर क्या जुटा कही है !!!?

गुरुवार, 18 जून 2009

एक बाई-पीड़ित का पैगाम, शाइनी भैया के नाम


ये सब शाइनी भैया का ही चमत्कार है
दो दिन हुए मेरी बाई भी काम से फरार है |
बीबी घर में लाओगे तब ही मैं वहाँ आउंगी
बैचलर के लिए खाना अब मैं नहीं बनाऊँगी |

अब आईने में खुद को देख सोचा करता हूँ
मुझमें छुपे शाइनी को ढूँढा करता हूँ |
मेरी बाई अब मेरे घर आने को तैयार नहीं है
उसको मेरे चरित्र पर अब कोई ऐतबार नहीं है |

एक तो बाज़ार की मंदी, दूसरा बाई भी सताती है
सीधे-सीधे कहती नहीं पर चरित्रहीन बताती है |
अब इस मंदी के दौर में परेशानियों में डूबा हूँ
अब ऐसे समय बीबी लाने के सवालों में उलझा हूँ |

शनिवार, 16 मई 2009

निर्झर बन जाने दे


होठों पर जो ठहरी हँसी, निर्झर बन जाने दे
कहकशां खामोश है, एक शैलाब आने दे |

उमस भरी पुरवाई भी चलती है थम-थम,
हिला दे सोये दरख्तों को बवंडर बन जाने दे |

इस वीराने में भी बसता था कभी कोई गुलिस्तां
कुरेद दे हर गर्द को वो मंजर को फ़िर छाने दे |

पुकारता है कहीं कोई पथिक, राह भूल गया ,
जला दे चाँद ज्यूँ, आफ़ताब से नहाने दे |

सोमवार, 4 मई 2009

चलो नदी के पार प्रिये



चलो
नदी के पार प्रिये
ले लहरों का आधार प्रिये

उतर जाए जब चांदनी
लहरों के आँचल में
और अठखेलियाँ लेता हो
अथाह जल पर चंद्र बिंब
छेड़ेंगे ह्रदय के तार प्रिये | चलो नदी के पार प्रिये...

राग भैरव के गायन तक
रश्मि-रथि के आवन तक
छेड़ेंगे हम राग मधुर
जो गुंजित हो लहरों के संग
मालकौंस और मल्हार प्रिये | चलो नदी के पार प्रिये...

चुने अपनें मन कुसुम को
और गुंथे अपने भावों को
करें आलिंगन परछाई भी
और हो जाए मन मतंग
डाल गले का हार प्रिये | चलो नदी के पार प्रिये...

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

यथार्थ


चाँद के आँसू
सुबह के ओस बन गए
कहीं पत्थर पर,
तो कहीं पत्तों पर जम गए |
पत्थर ने गले लगाया
पत्तों ने भी गले लगाया |
ओस खुशी से ना समाया
ख़ुद को बिखराया |
मगर
पत्थर ने दगाबाजी की,
सूरज के किरणों से
सौदेबाजी की |
जला डाला ओस को
वहीं पत्तों
ने
अपने कोंपलों में
छुपा लिया |
ओस को
अपना लिया |
काश
ओस को पत्थर और पत्ते में
फर्क मालूम होता |
अगर होता तो सिर्फ़
पत्ते का हो रहता
जीवन को अपना लेता
दुविधा मन की मिटा देता|
मगर वह फर्क नहीं जानता
इसीलिए उसे कभी पत्ता
तो कभी पत्थर मिलता |




रविवार, 19 अप्रैल 2009

एक ग़ज़ल

एक कतरा समन्दर का मेरे नाम तो कर
जो मेरी पथरीली आंखों को नम कर दे |

देख बीमार है बस्ती और बीमार शहर
ला खुशी कहीं से इनमे जिन्दगी भर दे |

उड़ा ना ले जाए बवंडर कहीं परवाजों को
भर इन परों में जादू या हवा मद्धम कर दे |

मेरे अंधेरे घर में सिर्फ़ "
चाँद" है मयस्सर
आदत है अंधेरे की रौशनी शबनम कर दे |

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

ढोंग



शंकर यहाँ डुगडुगी बजाता, हनुमान भी हाथ फैलाता है
और कभी रखता है कोई मूर्ति, उसी में जिस थाली में खाता है


बुद्ध भी यहाँ मिल जायेंगे, और मिलेंगी बहुतेरे काली माई
कालिख तन पर और जिह्वा बाहर, आकर आपके आगे हाथ फैलाई


कभी डाल चोला साधू का, अलखनिरंजन की ऊँची टेर लगाता,
दे बच्चा खाने को कुछ, बाबा का आशीर्वाद खाली नहीं जाता


कभी आएगा कोई अघोरी, अस्थि-दंड खूब बजायेगा
पढ़लेगा मस्तक की रेखाएं, खुद को त्रिकालदर्शी बतलायेगा


घुमती है एक मण्डली,जो अजमेरशरीफ भी जाती है
डाल दो कुछ चादर में ,चादर चढाने जाती है


चौराहे पर एक बाबा मिलेगा, लोबान जला भूत भागता है
दे दो इसको बस एक रुपया, ज़माने भर की दुआ बरसाता है


देखा कभी एक नज़ारा ऐसा भी, आदमी काम्पने लगा गिरकर ,
पास कोई उसके ना फटक रहा, और पैसा बरसता था झरझर


एक उर में और एक उदर में रख, दीनहीन कैसी ये माता है
हाथ फैलाकर रही मांगती, चौराहे पर जब कोई रुक जाता है


भरी जवानी तन का सौदा, बुढापा अब खटकता है ,
मन का सौदा कर रही हैं, हाथ अब दिन-रात पसरता है

बहुत ही ऐसे ढोंग मिलेंगे, जो रोज़ हमें छला करते हैं
हाय विधाता कैसी ये दुनिया, कैसे-कैसे जीवन रहते हैं

रविवार, 12 अप्रैल 2009

हंसो ऐसे की...


हंसो ऐसे की सर पे छत उठा लो,
हंसो ऐसे की हर दिवार गिरा दो |
कोई मुस्कराहट छने होठों पे
वहीँ उसे तुम कहकहा बना दो |
गम का और गमगीन का
हर दर्द का सैलाब मिटा दो |
नदी जो बहती हो आंसू की
हंसी के सागर से मेल करा दो |
जीवन छोटा, बगिया छोटी
इसे खुशी का कहकशां बना दो |

शनिवार, 28 मार्च 2009

नेता जी का इमोशनल अत्याचार

चुनाव का त्योहार,
देश का बंटाधार |
वादों का ले पिटारा,
ईमोसनल अत्याचार |
आधारहीन जनतंत्र,
त्रिशंकु जनाधार |
झूठी कसमे झूठे वादे
और घोषणा निराधार |
उजला कपड़ा
तन से है जकड़ा ,
जिह्वा शहद
और नत मस्तक,
मन में छुपा
पैनी तलवार |
दल बदल
और खींचातानी
पैसा बहता
जैसे पानी|
देश की तबाही
पर रो रहे हैं,
सफ़ेदपोश
घड़ियाल |

रविवार, 8 मार्च 2009

होली की हार्दिक शुभकामनायें....



सजी हुई है रंगों की महफ़िल,सजा हुआ संसार है

मदमस्त

हो सब झूम रहे, चढा अजब खुमार है |

है यौवन मद में झूम रहा, आह्लादित हो घुम रहा ,

और फड़कती रगों से हर क्षण फ़ुट रहा झंकार है |

भंग की सरिता कहीं
बह रही, कहीं रंगों की फुहार है,

क्या राजा और क्या रंक , सब पर फाल्गुन की खुमार है |

कोंपल नए फूटे ठुन्ठो से, वृद्धों पे छाई तरुणाई है,

कामदेव की मधुर कल्पना से ये धरती आज नहायी है |

है ऋतुराज का साम्राज्य ऐसा हर कोई हुआ मलंग है,


देख दशा नव यौवन की स्वयं चितेरा दंग है |

है थाप कहीं पे ढोलक की, कहीं चंग और मृदंग है,

सब झूम रहे सब घूम रहे, हर तरफ यही रंग है |

हवा बेढंगी बह रही है , जैसे अल्हड तरुणाई है ,

कभी तेज़ तो कभी मंद, जैसे छाई अलसाई है |

है मेलजोल का पर्व, सभी रंग मिल आपस में कह रहे,

ना कोई राजा ना कोई रंक, सब एक रौ में बह रहे |

शनिवार, 7 मार्च 2009

आगाज़

यादों के दरख्तों पे अरमानों की बुलबुल लेती है जब करवटें,

बागबान भी मचल उठता है मरहलों से गुजरे कारवां की तलाश में |

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

मेरी पहचान....


अन्वेषण स्वयं का
जैसे
अनंत शून्य में भटकना
क्या सत्य है मेरा ,
या कोई मिथ्या
अंतरद्वंद या छलावा
मैं बुद्ध नहीं
महावीर भी नहीं हूँ
जो संसार के कष्टों से भाग चलूँ |
नहीं बैठ सकता कंदराओं में ,
वृक्षों के नीचे
और करूँ अन्वेषण
सत्य का
कष्टों से मुक्ति का |
खुद को ही सहेजना
सुलझाने की जगह
जीवन के जटिलता का |
यह अपराध है
जो मैं नहीं कर सकता |
मैं बंद पड़ी गांठों
को खोलता हूँ
अपनी असमर्थ अँगुलियों से |
मेरा सत्य
यहीं बंद है |
मेरे अंतर के माया-जाल
की कुंजी यहीं बंधी है |
बस गांठें खोल लूँ |
मैं ब्रम्ह हूँ
आभास मुझे है
मैं स्वयं सृष्टी हूँ
फिर क्यूँ
ये अंतर्द्वंद
ये विचारों का मंथन ,
कुछ अनुतरित सा हो जाता हूँ |
जब कोई करता है
मेरा अन्वेषण |