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"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |

रविवार, 26 सितंबर 2010

भ्रष्टमंडल खेल

राष्ट्रमंडल खेल अब है नजदीक आयो, दिल्ली संग हुयी दिल्लगी भारी है
आन बान शान पे ना दाग लगने पाए, ओखरी में सर देना ही लाचारी है
कास१ के उछास पे चमके हैं रणवीर, मति के गति पे कैसी छाई खुमारी है
हीराकुंड उफने है यमुना को गया लील, शांत कालिंदी अब तो हाहाकारी है

दशा देख दिल्ली की रण छोडे सुरमा भी, देश के विकास में गतिरोध डाली है
गढ्ढा है या रोड है कुछ मतिभ्रम सा है, हो गए अरबों खर्च अब जेब खाली है
अठाईस हजार करोड फूंक दिए खेल में, भूखी नंगी जनता अब तो सवाली है
कागज़ के घरौदों से बरसात कैसे रुके, घनघोर वृष्टि में कैसो मनत दिवाली है

लालबत्ती गाडी का गुमान सबको है भरा, जनता तो खिंच रही बैलगाडी है
कहीं नदी बहती पैसे की बेकल बन, और कहीं चूल्हा बंद जेब सुखाडी है
सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा है गूंगा राजा, पथभ्रष्ट मंत्री ही उसके अगाडी है
भारी बोली लगी थी दौड में जिसपे , पोल है अब खुली लंगड़ा खिलाड़ी है

दिल्ली की सीमा बस संसद से खेलगांव, बाकी तो विदेशी अतिक्रमणकारी हैं
औद्योगिक क्षेत्र भी विकासहीन अछूते हैं, आवासीय क्षेत्रों में फैली महामारी है
वृष्टि की कहीं मार पड़ी है भयंकर, कहीं टायफाइड डेंगू की बढती बीमारी है
अब तो जनता है अनुगत देव चरणों में, त्राहिमाम त्राहिमाम रहत पुकारी है

हर पांच बरस जिस पुष्पलता को है सेवत, बस भ्रम में पालत कंटकारी२ है
धन्य है ये देव भूमि और ये जनता, सहनशीलता क्या खूब ह्रदय में धारी है
लोकतंत्र है मृत राजतंत्र के सामने, जनता का बस सिर धुनना जारी है
देख दशा देश की ‘शशि’ भी है मलिन, राहू का त्रास ही इसका आधारी है

(१. कास-काषार्पण/चांदी के सिक्के २. कंटकारी- रेंगनी/काँटों की एक झाडी)

सोमवार, 6 सितंबर 2010

मेरी भी सुन...



आकाश में बैठनेवाले, कभी मुझपे दृष्टिपात तो कर
ना लगा सका गले मुझको, बन बैरी आघात तो कर
है कैसी अनोखी तेरी रचना, हर रंग उलझे उलझे
तू भी उलझ गया है, सुलझन की शुरुआत तो कर

उड़ रहा हूँ टूट कर शाख से, मैं सूखे पत्तों की तरह
सिंचित कर मृतप्राय जड़ों को, कभी बरसात तो कर
विपन्नता ने बना डाला, सहिष्णु और संतोषी मुझे
अब इस छोटी झोली में, कुछ खुशियाँ सौगात तो कर ~शशि

शनिवार, 4 सितंबर 2010

गुरु वंदना



गुरु आज शरण हम तेरे
अज्ञान तिमिर हमें घेरे
तेरी कृपा जो हो जाये
होंगे ये दूर अँधेरे .
गुरु....

मैं देव अन्य ना जानूं
मैं धर्म और ना मानू
कर गहकर करूँ प्रार्थना
तुम सर्वस्व हो मेरे.
गुरु...

अक्षर दीप जला दो
मन पंगु को चला दो
भवबंधन से दो मुक्ति
जीवन मरण के फेरे
गुरु...

संताप ह्रदय के मिटा दो
आशीष हमपे आज लुटा दो
गढ़ दो जीवन सरल-सुखद
तुम हो कुशल चितेरे
गुरु...

कर्म भक्ति



बहुत हो गयी कृष्ण भक्ति
पा गए हम राधा कि शक्ति
पर कर्मयोग कि है ये सूक्ति
कर्म करोगे, पाओगे मुक्ति ~शशि

बुधवार, 1 सितंबर 2010

कृष्ण ! क्या तुम फिर आओगे


कृष्ण ! क्या तुम फिर आओगे

अपने हाथों से तमस मिटाने
जग को फिर कर्मयोग सिखाने
कंस-दुर्योधन जीते इस जग में
उनका क्या समूल मिटाओगे

सबल नहीं है अबला नारी
पगपग पर है व्यभाचारी
दुशासन अट्टहास कर रहे
क्या तुम चीर बढाओगे

धृतराष्ट्र बैठा सिंहासन पर
व्यथित है अपने ही ऊपर
संजय भी अब दलबदलू
दिव्य चक्षु कैसे दिखाओगे

आज भी लड़ते पांडव-कौरव
धूल में मिला रहे निज गौरव
बृहन्नलला है अर्जुन अब तो
क्या तुम ही गांडीव उठाओगे