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"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

ढोंग



शंकर यहाँ डुगडुगी बजाता, हनुमान भी हाथ फैलाता है
और कभी रखता है कोई मूर्ति, उसी में जिस थाली में खाता है


बुद्ध भी यहाँ मिल जायेंगे, और मिलेंगी बहुतेरे काली माई
कालिख तन पर और जिह्वा बाहर, आकर आपके आगे हाथ फैलाई


कभी डाल चोला साधू का, अलखनिरंजन की ऊँची टेर लगाता,
दे बच्चा खाने को कुछ, बाबा का आशीर्वाद खाली नहीं जाता


कभी आएगा कोई अघोरी, अस्थि-दंड खूब बजायेगा
पढ़लेगा मस्तक की रेखाएं, खुद को त्रिकालदर्शी बतलायेगा


घुमती है एक मण्डली,जो अजमेरशरीफ भी जाती है
डाल दो कुछ चादर में ,चादर चढाने जाती है


चौराहे पर एक बाबा मिलेगा, लोबान जला भूत भागता है
दे दो इसको बस एक रुपया, ज़माने भर की दुआ बरसाता है


देखा कभी एक नज़ारा ऐसा भी, आदमी काम्पने लगा गिरकर ,
पास कोई उसके ना फटक रहा, और पैसा बरसता था झरझर


एक उर में और एक उदर में रख, दीनहीन कैसी ये माता है
हाथ फैलाकर रही मांगती, चौराहे पर जब कोई रुक जाता है


भरी जवानी तन का सौदा, बुढापा अब खटकता है ,
मन का सौदा कर रही हैं, हाथ अब दिन-रात पसरता है

बहुत ही ऐसे ढोंग मिलेंगे, जो रोज़ हमें छला करते हैं
हाय विधाता कैसी ये दुनिया, कैसे-कैसे जीवन रहते हैं