क्या सत्य औ क्या मिथ्या करने लगा जब चिंतन,
अभेदित इस कटु द्वन्द में उलझ गया मैं अकिंचन |कर्मवीर की शिक्षा से मैं जब बना कर्मवीर सबल,
खेत रहा मैं हर रण में, शायद मेरा भाग्य निर्बल |
लक्ष्य साध्य-निर्बाध-साक्ष्य था, फिर कैसी ये चूक,
समतल सुखद राहों पे, पग छलनी करते किंसुक |
उठाई कितनी तुमुल गर्जना जो हुई मद्धम व्योमगत,
अब किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा, क्या हो जाऊं जग विरत |