स्वागतम

"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |

बुधवार, 3 सितंबर 2008

बारिश और मैं ...










हम भी भींगे थे पहली बारिश में,
मगर हालात कुछ और था |
हँसी थी चेहरे पर मगर,
दिल में जज्बात कुछ और था |
वो पहली ठंढी फुहार,
दिल की अगन बुझा न सकी |
मेरे सुलगते जख्मों को,
मरहम बन सहला न सकी |
हम भींगे थे बारिश में,
अपने आसुओंको छुपाने के लिए |
जज्बात के बवंडर में,
बस खुद ही डूब जाने के लिए |

अहसास

फूलों को मुस्कुराने दो
कलियों को खिलखिलाने दो
मुझे तो है बस काँटों से वास्ता
जिनकी चुभन मुझे देती हैं
अहसास फूलों की कोमलता का
उनकी चपलता का
मेरे शरीर से टपकते लहू
बोध कराते हैं मुझे
सुर्ख गुलाब का
मेरी आहों से लगता है
जैसे फूल मुझपे हँसे हों
मेरी बेबसियों पे उनके
ये कहकहे हों
मुझे प्यारी लगती है काँटों की चुभन
जो अंतर-हृदय को सहलाते हैं
मुझे
अपनेपन का अहसास दिलाते हैं.

सतत् चरैवेति...

मेरे मन तू और बहक
चूमने को आकाश की ऊँचाईयां
देख बौनी होती धरती को
और खोज उसमे अपनी परछाईयां
उड़ता चल पहाड़ों के ऊपर से
वो भी सिर झुका लें
उड़ता चल जंगलों के ऊपर से
वृक्ष भी ईर्ष्या से जल उठें
उड़ता चल सागर के ऊपर से
जो तुम्हें इक बूँद दिखे
मन मेरे तू इतना मचल
आकाश भी छोटा लगे
राह में आंधियां भी आएँगी
तेरी शक्ति को पिघलायेंगी
बादलों के गर्जन संग तुम्हें
चमक चमक डरायेंगी
मन मेरे तू कभी न डर
तू इनसे भी विकराल है
हुंकार भर के आगे बढ़
तू ही तो महाकाल है
पीछे रह जाएँगी
मुश्किलें जो आएँगी
फिर वही आगे बढ़
राह तुझे बतलायेंगी
इसलिए तू बन अविचल
बढ़ता चल
बस बढ़ता चल

मौत...



असर देखो मौत का किस कदर हो रहा है,
पूनम के बाद चाँद हर रात घट रहा है |

ग़दर के बाद

(मित्रों हमारे देश ने बहुत सारे जातिगत ग़दर देखें हैं,
फिल्म Bombay के दृश्यों को देखने के बाद कवि हृदय
मचल उठा और ये बानगी कागज़ पर उतरती चली गयी.....)












है
शह खामोश बहुत ही, जरूर कहीं कुछ बात हुई है,
सन्नाटे का है शोर चारों तरफ, क्या अज़ब हालात हुई है |

वीराने बस रहे हैं माय्खानो में, कसक जज्बात हुई है,
और टूटकर बिखरे पैमानों में, दर्दे आह हुई है |

जो भटकते थे कूचों* में दिलेजाना के कभी,
आज क्यूँ उनमे खूने-वह्शियत सवारन हुई है |

जिन झरोखों में परियां कभी दिख जाती थीं,
देखा हर कांच हर कड़ी तबाह हुई है |

है ज़हर ये कैसा सिर्फ वीराने जी रहे हैं,
इंसानियत बदल गयी, कैसी तिलस्मात हुई है |