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"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
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रविवार, 12 अप्रैल 2009

हंसो ऐसे की...


हंसो ऐसे की सर पे छत उठा लो,
हंसो ऐसे की हर दिवार गिरा दो |
कोई मुस्कराहट छने होठों पे
वहीँ उसे तुम कहकहा बना दो |
गम का और गमगीन का
हर दर्द का सैलाब मिटा दो |
नदी जो बहती हो आंसू की
हंसी के सागर से मेल करा दो |
जीवन छोटा, बगिया छोटी
इसे खुशी का कहकशां बना दो |