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"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
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ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
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बुधवार, 1 सितंबर 2010

कृष्ण ! क्या तुम फिर आओगे


कृष्ण ! क्या तुम फिर आओगे

अपने हाथों से तमस मिटाने
जग को फिर कर्मयोग सिखाने
कंस-दुर्योधन जीते इस जग में
उनका क्या समूल मिटाओगे

सबल नहीं है अबला नारी
पगपग पर है व्यभाचारी
दुशासन अट्टहास कर रहे
क्या तुम चीर बढाओगे

धृतराष्ट्र बैठा सिंहासन पर
व्यथित है अपने ही ऊपर
संजय भी अब दलबदलू
दिव्य चक्षु कैसे दिखाओगे

आज भी लड़ते पांडव-कौरव
धूल में मिला रहे निज गौरव
बृहन्नलला है अर्जुन अब तो
क्या तुम ही गांडीव उठाओगे