हर चेहरे पर एक चेहरा है
ढूंढोगे क्या परछाई ,
भेद बहुत ही गहन है
जैसे अंध कूप की गहराई
मन के भाव को क्या जानोगे
विषवृक्ष पल रहा अंतर में
अन्तः का शिव शव हो चूका
और ढूंढते हैं मंदिर में
क्या मरघट पे अमराई की
शीतल छाया मिल पायेगी,
अन्तः ताप से दहक रहे हो
निश्ताप शांति भी घुल जायेगी
निष्प्राण करो अपने भावों को
जो पाल रखा अपने उर में,
अंगीकार करो खुद से खुद को
हो नाद तुम्हारे ही स्वर में
ढूंढो खुद को मन की गहराई में
पूछो खुद से तुम क्या हो,
देखो अपना प्रतिबिम्ब जैसे
कोई चेहरा नया हो
खुद से खुद को जोड़ना
जीवन का आधार यही है,
जो न जुड़ता खुद से
वो फिर क्या जुटा कही है !!!?