स्वागतम

"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |

शनिवार, 21 अगस्त 2010

अंतर्नाद- शशि रंजन: उलझन

अंतर्नाद- शशि रंजन: उलझन

उलझन

जीवन उलझ गया ये ढूंढने में,
क्या खोया और क्या है पाया
खाली हाथ और खुली मुट्ठियाँ,
आवागमन की गज़ब ये माया

उलझन कैसी और कैसा र्द्वंद
भ्रम कैसा और कैसा छलावा
मिथ्या जगत की थोथी बातें
सत्य आलोपित, असत्य निवाला

बुद्ध बन गया, महावीर बन गया
लगा ली श्मशान की धुनी सर पे
बैठे खोज रहे सत्य कंदराओं में
जो छिपा है स्वयं के अंतर में