(आज देश की हालत ये है कि हर नुक्कड़ पर के आवारा दोपाये अपने आपको नेता समझ बैठे हैं, देश के शीर्ष भवन में बैठ ये विभिन्न सुरों में भौंकते हैं | इस तस्वीर को देश समझें और टूटते झोपडी को देश का संसद...)
इस कविता/व्यंग्य का भाव दोपायों के लिए है | चौपायों से क्षमाप्रार्थी हूँ उनकी इस बेइज्जती के लिए... ~शशि
हाँ ! यहाँ भी कुत्ते भौंकते हैं
हर समस्या पर चौंकते हैं,
साम्यवादी कुत्ते हैं
परम्परावादी कुत्ते हैं
अन्दर कि बात यही है
अवसरवादी कुत्ते हैं
इनमे भी सगोत्रीय की जंग है
यहाँ भी वर्णभेद का रंग है
कबीरा भी था कुतिया राम का
हम भी कुत्ते हैं आवाम का
हम भी समस्याओं पर चौंकते हैं
जी जान लगाकर एक सुर में भौंकते हैं
~शशि रंजन मिश्र (२३/०२/२०११)