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"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
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बुधवार, 3 सितंबर 2008

सतत् चरैवेति...

मेरे मन तू और बहक
चूमने को आकाश की ऊँचाईयां
देख बौनी होती धरती को
और खोज उसमे अपनी परछाईयां
उड़ता चल पहाड़ों के ऊपर से
वो भी सिर झुका लें
उड़ता चल जंगलों के ऊपर से
वृक्ष भी ईर्ष्या से जल उठें
उड़ता चल सागर के ऊपर से
जो तुम्हें इक बूँद दिखे
मन मेरे तू इतना मचल
आकाश भी छोटा लगे
राह में आंधियां भी आएँगी
तेरी शक्ति को पिघलायेंगी
बादलों के गर्जन संग तुम्हें
चमक चमक डरायेंगी
मन मेरे तू कभी न डर
तू इनसे भी विकराल है
हुंकार भर के आगे बढ़
तू ही तो महाकाल है
पीछे रह जाएँगी
मुश्किलें जो आएँगी
फिर वही आगे बढ़
राह तुझे बतलायेंगी
इसलिए तू बन अविचल
बढ़ता चल
बस बढ़ता चल

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