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"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
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सोमवार, 11 अगस्त 2025

झूठा बचपन



सोंधी-सोंधी खुशबू जो बिखेरे धरती,

खींच लेती थी सांसें, मन में उतरती।

छू न पाए कभी बूंद बारिश की तुम,

ना बनी कागज़ की नाव लहरों में झूम।

तो झूठ है वो बचपन जो तेरा रहा,

हाथ बस मोबाइल से चिपका रहा।


ना पतंगें उड़ीं, ना कभी कन्नी कटी,

ना ही भा-कटा की गूँज हवाओं में बही।

गिल्ली-डंडे की थाप, छुपन-छुपाई की दौड़,

ना रूठना-मनाना, ना शरारत का मोड़।

तो झूठ है वो बचपन जो तेरा रहा,

हाथ बस मोबाइल से चिपका रहा।


ना कीचड़ से सना तन, ना मिट्टी की महक,

ना गलियों में हुड़दंग, ना सीटी की चमक।

ना नानी-दादी की गोद में समाया,

ना किस्सों की गठरी में बचपन बिताया।

तो झूठ है वो बचपन जो तेरा रहा,

हाथ बस मोबाइल से चिपका रहा।

-शशि रंजन मिश्र (11-08-2025)