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"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |

सोमवार, 6 सितंबर 2010

मेरी भी सुन...



आकाश में बैठनेवाले, कभी मुझपे दृष्टिपात तो कर
ना लगा सका गले मुझको, बन बैरी आघात तो कर
है कैसी अनोखी तेरी रचना, हर रंग उलझे उलझे
तू भी उलझ गया है, सुलझन की शुरुआत तो कर

उड़ रहा हूँ टूट कर शाख से, मैं सूखे पत्तों की तरह
सिंचित कर मृतप्राय जड़ों को, कभी बरसात तो कर
विपन्नता ने बना डाला, सहिष्णु और संतोषी मुझे
अब इस छोटी झोली में, कुछ खुशियाँ सौगात तो कर ~शशि

5 टिप्‍पणियां:

  1. उड़ रहा हूं टूट कर शाख से, मैं सूखे पत्‍तों की तरह,
    सिंचित कर मृतप्राय जड़ों को, कभी बरसात तो कर
    बहुत ही सुन्‍दर लेखन ।

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  2. भावपूर्ण व मार्मिक चित्रण किया है भाई आपने ."
    आर्जियाँ सारी मै चेहरे पर लिख के लाया हुँ तुम्से क्या मांगू तुम खुद ही समझ लो मौला
    दरारे दरारे माथे पे मौला मरम्मत मुक़द्दर की कर दो मेरे मौला "

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  3. शशी जी बहुत बढ़िया .... सुंदर
    बेशक कुच्छ वक्त का इंतज़ार मिला हमको, पर खुदा से बढ़कर यार मिला हमको...

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