सुजाता का खीर जो ना खाते
सिद्धार्थ कहाँ बुद्ध बन पाते !
सिद्धार्थ कहाँ बुद्ध बन पाते !
सहते मौसम का शीत और ताप
रह जाते अपनी हड्डियाँ गलाते
मध्यम मार्ग कहाँ बुझ पाते!
सिद्धार्थ कहाँ बुद्ध बन पाते...
था मार ने आकर घेर लिया
नियति ने था मुंह मोड़ लिया
तप के ताप में जलता जीवन
मन की शीतलता कहाँ पाते !
जो सत्य समाहित पायस में था
जो लय लालायित उस मय में था
झंकृत कर गया जो तार तार
जीवन वीणा का स्वर क्या सुन पाते !
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