स्वागतम

"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

यथार्थ


चाँद के आँसू
सुबह के ओस बन गए
कहीं पत्थर पर,
तो कहीं पत्तों पर जम गए |
पत्थर ने गले लगाया
पत्तों ने भी गले लगाया |
ओस खुशी से ना समाया
ख़ुद को बिखराया |
मगर
पत्थर ने दगाबाजी की,
सूरज के किरणों से
सौदेबाजी की |
जला डाला ओस को
वहीं पत्तों
ने
अपने कोंपलों में
छुपा लिया |
ओस को
अपना लिया |
काश
ओस को पत्थर और पत्ते में
फर्क मालूम होता |
अगर होता तो सिर्फ़
पत्ते का हो रहता
जीवन को अपना लेता
दुविधा मन की मिटा देता|
मगर वह फर्क नहीं जानता
इसीलिए उसे कभी पत्ता
तो कभी पत्थर मिलता |




रविवार, 19 अप्रैल 2009

एक ग़ज़ल

एक कतरा समन्दर का मेरे नाम तो कर
जो मेरी पथरीली आंखों को नम कर दे |

देख बीमार है बस्ती और बीमार शहर
ला खुशी कहीं से इनमे जिन्दगी भर दे |

उड़ा ना ले जाए बवंडर कहीं परवाजों को
भर इन परों में जादू या हवा मद्धम कर दे |

मेरे अंधेरे घर में सिर्फ़ "
चाँद" है मयस्सर
आदत है अंधेरे की रौशनी शबनम कर दे |

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

ढोंग



शंकर यहाँ डुगडुगी बजाता, हनुमान भी हाथ फैलाता है
और कभी रखता है कोई मूर्ति, उसी में जिस थाली में खाता है


बुद्ध भी यहाँ मिल जायेंगे, और मिलेंगी बहुतेरे काली माई
कालिख तन पर और जिह्वा बाहर, आकर आपके आगे हाथ फैलाई


कभी डाल चोला साधू का, अलखनिरंजन की ऊँची टेर लगाता,
दे बच्चा खाने को कुछ, बाबा का आशीर्वाद खाली नहीं जाता


कभी आएगा कोई अघोरी, अस्थि-दंड खूब बजायेगा
पढ़लेगा मस्तक की रेखाएं, खुद को त्रिकालदर्शी बतलायेगा


घुमती है एक मण्डली,जो अजमेरशरीफ भी जाती है
डाल दो कुछ चादर में ,चादर चढाने जाती है


चौराहे पर एक बाबा मिलेगा, लोबान जला भूत भागता है
दे दो इसको बस एक रुपया, ज़माने भर की दुआ बरसाता है


देखा कभी एक नज़ारा ऐसा भी, आदमी काम्पने लगा गिरकर ,
पास कोई उसके ना फटक रहा, और पैसा बरसता था झरझर


एक उर में और एक उदर में रख, दीनहीन कैसी ये माता है
हाथ फैलाकर रही मांगती, चौराहे पर जब कोई रुक जाता है


भरी जवानी तन का सौदा, बुढापा अब खटकता है ,
मन का सौदा कर रही हैं, हाथ अब दिन-रात पसरता है

बहुत ही ऐसे ढोंग मिलेंगे, जो रोज़ हमें छला करते हैं
हाय विधाता कैसी ये दुनिया, कैसे-कैसे जीवन रहते हैं

रविवार, 12 अप्रैल 2009

हंसो ऐसे की...


हंसो ऐसे की सर पे छत उठा लो,
हंसो ऐसे की हर दिवार गिरा दो |
कोई मुस्कराहट छने होठों पे
वहीँ उसे तुम कहकहा बना दो |
गम का और गमगीन का
हर दर्द का सैलाब मिटा दो |
नदी जो बहती हो आंसू की
हंसी के सागर से मेल करा दो |
जीवन छोटा, बगिया छोटी
इसे खुशी का कहकशां बना दो |