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"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |
बुधवार, 22 अप्रैल 2009
यथार्थ
चाँद के आँसू
सुबह के ओस बन गए
कहीं पत्थर पर,
तो कहीं पत्तों पर जम गए |
पत्थर ने गले लगाया
पत्तों ने भी गले लगाया |
ओस खुशी से ना समाया
ख़ुद को बिखराया |
मगर
पत्थर ने दगाबाजी की,
सूरज के किरणों से
सौदेबाजी की |
जला डाला ओस को
वहीं पत्तों ने
अपने कोंपलों में
छुपा लिया |
ओस को
अपना लिया |
काश
ओस को पत्थर और पत्ते में
फर्क मालूम होता |
अगर होता तो सिर्फ़
पत्ते का हो रहता
जीवन को अपना लेता
दुविधा मन की मिटा देता|
मगर वह फर्क नहीं जानता
इसीलिए उसे कभी पत्ता
तो कभी पत्थर मिलता |
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chand mera priya bisay hai ,, par kabhi aisa nahi socha tha jisa ki apne socha hai .. bahut achha laga
जवाब देंहटाएंbehad hi bhavpurn rachna hai.kaphi achchha likha hai aapne.
जवाब देंहटाएंNavnit Nirav