स्वागतम

"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |

रविवार, 29 अगस्त 2010

क्या करूँ...

क्या सत्य औ क्या मिथ्या करने लगा जब चिंतन,
अभेदित इस कटु द्वन्द में उलझ गया मैं अकिंचन |
कर्मवीर की शिक्षा से मैं जब बना कर्मवीर सबल,
खेत रहा मैं हर रण में, शायद मेरा भाग्य निर्बल |
लक्ष्य साध्य-निर्बाध-साक्ष्य था, फिर कैसी ये चूक,
समतल सुखद राहों पे, पग छलनी करते किंसुक |
उठाई कितनी तुमुल गर्जना जो हुई मद्धम व्योमगत,
अब किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा, क्या हो जाऊं जग विरत |

रविवार, 22 अगस्त 2010

विवेकानन्द के प्रति

जो भारत तुमने देखा था
अंतिम शिला पर खड़े होकर
आज हम कहीं अधिक देखते
अपने घरों में बैठकर

हम में भी है फौलाद हृदय
और उन्नत मस्तक
कह सकते हैं ज्ञान की बातें
गूगल से खोज अक्षरशः

हिंदुत्व की रक्षा करने को
आपके कदम बढे थे
आँखें खुली यथार्थ जाना
यहाँ दल और सेना खड़े थे

नेतृत्व तुम्हारा आज भी वंदित
पर फिर मत आना इस देश
पछताओगे, छटपटाओगे
देख नवभारत का भेष

शनिवार, 21 अगस्त 2010

अंतर्नाद- शशि रंजन: उलझन

अंतर्नाद- शशि रंजन: उलझन

उलझन

जीवन उलझ गया ये ढूंढने में,
क्या खोया और क्या है पाया
खाली हाथ और खुली मुट्ठियाँ,
आवागमन की गज़ब ये माया

उलझन कैसी और कैसा र्द्वंद
भ्रम कैसा और कैसा छलावा
मिथ्या जगत की थोथी बातें
सत्य आलोपित, असत्य निवाला

बुद्ध बन गया, महावीर बन गया
लगा ली श्मशान की धुनी सर पे
बैठे खोज रहे सत्य कंदराओं में
जो छिपा है स्वयं के अंतर में


गुरुवार, 30 जुलाई 2009

लिट्टी-चोखा की गाथा




भड़भुन्जे में चना भुन्जाया,
और मशीन से जब की पिसाई
थोडा छिलका, थोड़े दाल की
जली हुयी सोंधी खुशबू आई |

रूप परिवर्तन हुआ चने का
देख सबका जी ललचाया,
बिहार का होर्लिक्स है ये
नाम इसका सत्तू कहलाया |


नमक,तेल,अजवायन औ जीरा
गोलमिर्च का स्वाद रसीला ,
प्याज,लहसुन जो पड़ जाये तो
बने सत्तू का स्वाद रंगीला |

उधर अलग बर्तन में
गुंथे आटे
छोटे छोटे लोई में
फिर उसको बांटे |

गोल लोई का लोटा बनायें
जिस से सत्तू उसमे समाये,
करें मुंह बंद आटे से
फिर लोई गोल की जाये |

उधर कंडे में ताव है आया
जिसको अलग था अलाव जलाया,
बैगन को दहकते अलाव पर डाला ,
पक जो गया तो उसे उतारा |

उलट पलट लोई को सेंका
और बदलते रूप को देखा
सींक जब गयी हर लिट्टी
कपडे से झाड़ा राख औ मिटटी |

अब बैगन के भुरते की
बारी आया ,
बिहार में जो
चोखा कहलाया |

जले हुए छिलके को हटाया
उसमे नमक और तेल मिलाया
कटे हुए बारीक़ लहसुन और प्याज
मिला टमाटर है अलग अंदाज़

भरी कटोरी घी की सजाई
आम के अचार की भी बारी आई
लिट्टी चोखा को ऐसे ही बनायें
जब खाएं तो, विधिवत खाएं |

उदर रोग निस्तारण करता
श्री लिट्टी महाराज ,
पेट को हल्का ,शरीर स्फूर्त
सफल होए सब काज |
(समस्त लिट्टी प्रेमियों को समर्पित)

शनिवार, 18 जुलाई 2009

जीवन गीत

हर चेहरे पर एक चेहरा है

ढूंढोगे क्या परछाई ,

भेद बहुत ही गहन है

जैसे अंध कूप की गहराई

मन के भाव को क्या जानोगे

विषवृक्ष पल रहा अंतर में

अन्तः का शिव शव हो चूका

और ढूंढते हैं मंदिर में

क्या मरघट पे अमराई की

शीतल छाया मिल पायेगी,

अन्तः ताप से दहक रहे हो

निश्ताप शांति भी घुल जायेगी

निष्प्राण करो अपने भावों को

जो पाल रखा अपने उर में,

अंगीकार करो खुद से खुद को

हो नाद तुम्हारे ही स्वर में

ढूंढो खुद को मन की गहराई में

पूछो खुद से तुम क्या हो,

देखो अपना प्रतिबिम्ब जैसे

कोई चेहरा नया हो

खुद से खुद को जोड़ना

जीवन का आधार यही है,

जो न जुड़ता खुद से

वो फिर क्या जुटा कही है !!!?

गुरुवार, 18 जून 2009

एक बाई-पीड़ित का पैगाम, शाइनी भैया के नाम


ये सब शाइनी भैया का ही चमत्कार है
दो दिन हुए मेरी बाई भी काम से फरार है |
बीबी घर में लाओगे तब ही मैं वहाँ आउंगी
बैचलर के लिए खाना अब मैं नहीं बनाऊँगी |

अब आईने में खुद को देख सोचा करता हूँ
मुझमें छुपे शाइनी को ढूँढा करता हूँ |
मेरी बाई अब मेरे घर आने को तैयार नहीं है
उसको मेरे चरित्र पर अब कोई ऐतबार नहीं है |

एक तो बाज़ार की मंदी, दूसरा बाई भी सताती है
सीधे-सीधे कहती नहीं पर चरित्रहीन बताती है |
अब इस मंदी के दौर में परेशानियों में डूबा हूँ
अब ऐसे समय बीबी लाने के सवालों में उलझा हूँ |

शनिवार, 16 मई 2009

निर्झर बन जाने दे


होठों पर जो ठहरी हँसी, निर्झर बन जाने दे
कहकशां खामोश है, एक शैलाब आने दे |

उमस भरी पुरवाई भी चलती है थम-थम,
हिला दे सोये दरख्तों को बवंडर बन जाने दे |

इस वीराने में भी बसता था कभी कोई गुलिस्तां
कुरेद दे हर गर्द को वो मंजर को फ़िर छाने दे |

पुकारता है कहीं कोई पथिक, राह भूल गया ,
जला दे चाँद ज्यूँ, आफ़ताब से नहाने दे |

सोमवार, 4 मई 2009

चलो नदी के पार प्रिये



चलो
नदी के पार प्रिये
ले लहरों का आधार प्रिये

उतर जाए जब चांदनी
लहरों के आँचल में
और अठखेलियाँ लेता हो
अथाह जल पर चंद्र बिंब
छेड़ेंगे ह्रदय के तार प्रिये | चलो नदी के पार प्रिये...

राग भैरव के गायन तक
रश्मि-रथि के आवन तक
छेड़ेंगे हम राग मधुर
जो गुंजित हो लहरों के संग
मालकौंस और मल्हार प्रिये | चलो नदी के पार प्रिये...

चुने अपनें मन कुसुम को
और गुंथे अपने भावों को
करें आलिंगन परछाई भी
और हो जाए मन मतंग
डाल गले का हार प्रिये | चलो नदी के पार प्रिये...

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

यथार्थ


चाँद के आँसू
सुबह के ओस बन गए
कहीं पत्थर पर,
तो कहीं पत्तों पर जम गए |
पत्थर ने गले लगाया
पत्तों ने भी गले लगाया |
ओस खुशी से ना समाया
ख़ुद को बिखराया |
मगर
पत्थर ने दगाबाजी की,
सूरज के किरणों से
सौदेबाजी की |
जला डाला ओस को
वहीं पत्तों
ने
अपने कोंपलों में
छुपा लिया |
ओस को
अपना लिया |
काश
ओस को पत्थर और पत्ते में
फर्क मालूम होता |
अगर होता तो सिर्फ़
पत्ते का हो रहता
जीवन को अपना लेता
दुविधा मन की मिटा देता|
मगर वह फर्क नहीं जानता
इसीलिए उसे कभी पत्ता
तो कभी पत्थर मिलता |