स्वागतम
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
सोमवार, 11 अक्टूबर 2010
रविवार, 26 सितंबर 2010
भ्रष्टमंडल खेल
आन बान शान पे ना दाग लगने पाए, ओखरी में सर देना ही लाचारी है
कास१ के उछास पे चमके हैं रणवीर, मति के गति पे कैसी छाई खुमारी है
हीराकुंड उफने है यमुना को गया लील, शांत कालिंदी अब तो हाहाकारी है
दशा देख दिल्ली की रण छोडे सुरमा भी, देश के विकास में गतिरोध डाली है
गढ्ढा है या रोड है कुछ मतिभ्रम सा है, हो गए अरबों खर्च अब जेब खाली है
अठाईस हजार करोड फूंक दिए खेल में, भूखी नंगी जनता अब तो सवाली है
कागज़ के घरौदों से बरसात कैसे रुके, घनघोर वृष्टि में कैसो मनत दिवाली है
लालबत्ती गाडी का गुमान सबको है भरा, जनता तो खिंच रही बैलगाडी है
कहीं नदी बहती पैसे की बेकल बन, और कहीं चूल्हा बंद जेब सुखाडी है
सर्वोच्च सिंहासन पर बैठा है गूंगा राजा, पथभ्रष्ट मंत्री ही उसके अगाडी है
भारी बोली लगी थी दौड में जिसपे , पोल है अब खुली लंगड़ा खिलाड़ी है
दिल्ली की सीमा बस संसद से खेलगांव, बाकी तो विदेशी अतिक्रमणकारी हैं
औद्योगिक क्षेत्र भी विकासहीन अछूते हैं, आवासीय क्षेत्रों में फैली महामारी है
वृष्टि की कहीं मार पड़ी है भयंकर, कहीं टायफाइड डेंगू की बढती बीमारी है
अब तो जनता है अनुगत देव चरणों में, त्राहिमाम त्राहिमाम रहत पुकारी है
हर पांच बरस जिस पुष्पलता को है सेवत, बस भ्रम में पालत कंटकारी२ है
धन्य है ये देव भूमि और ये जनता, सहनशीलता क्या खूब ह्रदय में धारी है
लोकतंत्र है मृत राजतंत्र के सामने, जनता का बस सिर धुनना जारी है
देख दशा देश की ‘शशि’ भी है मलिन, राहू का त्रास ही इसका आधारी है
(१. कास-काषार्पण/चांदी के सिक्के २. कंटकारी- रेंगनी/काँटों की एक झाडी)
शनिवार, 25 सितंबर 2010
सोमवार, 6 सितंबर 2010
मेरी भी सुन...
ना लगा सका गले मुझको, बन बैरी आघात तो कर
है कैसी अनोखी तेरी रचना, हर रंग उलझे उलझे
तू भी उलझ गया है, सुलझन की शुरुआत तो कर
शनिवार, 4 सितंबर 2010
गुरु वंदना
अज्ञान तिमिर हमें घेरे
तेरी कृपा जो हो जाये
होंगे ये दूर अँधेरे .
गुरु....
मैं देव अन्य ना जानूं
मैं धर्म और ना मानू
कर गहकर करूँ प्रार्थना
तुम सर्वस्व हो मेरे.
गुरु...
अक्षर दीप जला दो
मन पंगु को चला दो
भवबंधन से दो मुक्ति
जीवन मरण के फेरे
गुरु...
संताप ह्रदय के मिटा दो
आशीष हमपे आज लुटा दो
गढ़ दो जीवन सरल-सुखद
तुम हो कुशल चितेरे
गुरु...
कर्म भक्ति
बुधवार, 1 सितंबर 2010
कृष्ण ! क्या तुम फिर आओगे
मंगलवार, 31 अगस्त 2010
श्रीकृष्ण जन्म : तमसो मा ज्योतिर्गमय के आधार
भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव विक्रम संवत 2067 के भाद्रपद महीने के अष्टमी तिथि को सम्पूर्ण विश्व में हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा मनाया जा रहा है | ईसाई पंचांग के अनुसार यह शुभ दिन 01-02 सितम्बर 2010 को है |
पुराणानुसार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद महीने के कृष्णपक्ष में अष्टमी तिथि को हुआ था | वासुदेव और देवकी की यह आठवीं सन्तान विश्व कल्याणार्थ अवतरित हुयी | कहा जाता है रोहिणी नक्षत्र के जातक पतले, स्वार्थी, झूठे, सामाजिक, मित्राचार वाले, दृढ़ मनोबल वाले, बुद्धिशाली, पद-प्रतिष्ठा वाले, रसवृत्ति वाले, सुखी, संगीत कला इत्यादि ललित कलाओं में रस रखने वाले, देव-देवियों में आराध्य वाले मिलते हैं। रोहिणी नक्षत्र में जन्म का ही असर था की भगवान श्रीकृष्ण में ये सारे गुण मौजूद थे |
संसार को ज्ञानयोग और कर्मयोग की दिव्य ज्योति दिखानेवाले का जन्म कृष्णपक्ष कि अंधियारी रात में हुआ | ज्योति की कोई किरण न रहे इसलिए प्रभु ने तूफान भी उठा दिया | प्रकाश का अवतरण तमस के कोख से हुआ |
जहाँ तक जन्म की प्रक्रिया को समझें तो इसकी रहस्यमय गुत्थी में उलझ सकते हैं | यह नितांत सत्य है की किसी का भी जन्म प्रकाश में नहीं हो सकता | एक बीज जमीन के अँधेरे में ही पनपता है, अंकुरण भूगर्भ में ही होता है जहाँ अँधेरे का साम्राज्य होता है | अमृत का उद्भेद समुन्द्र के गहन से ही हुआ है | कवि अपने कल्पना के गहराई में ही पैठ लगता है जहाँ सूर्य की किरणें नहीं जा सकतीं | घनघोर अँधेरे में ही प्रकाश का उद्भव सार्थक होता है |
कारागृह में जन्म, एक बंधन का सूत्र है | सभी जन्म लेते हैं, एक बंधन मिलता है, सामाजिक और वैचारिक कारागृह की | और अंत में सभी मुक्त भी होते हैं | जीवन और मरण के बीच यह कारागृह ही होता है, जो संसार के हर बाधाओं को झेलने की प्रेरणा देता है, एक राह देता है | कारागृह एक शर्त है, बंधन एक शर्त है क्योंकि जन्म के बाद प्रतिपल मृत्यु संभावी है | प्राण का शारीर में प्रवेश ही एक कारागृह में प्रवेश है जो मृत्युपरांत ही बंधन मुक्त होती है |
जन्म के बाद प्रतिपल मृत्यु का भय है, और यहाँ भगवान को तो अपने मामा कंस के द्वारा मारा जाना निश्चित था | मृत्यु हर संभावी थी मगर उन्होंने खुद को मुक्त कर लिया | मृत्यु से मुक्ति होती है, किसी को इसी कारागृह में तो किसी को मुक्त आकाश तले |
वृन्दावन के आनंद धाम में कृष्ण मुक्त तो रहे मगर कंस के द्वारा भेजा हुआ मौत उनतक आता रहा और हारता रहा | तात्पर्य यह है की मृत्यु हर एक रूप में आती है मगर हारती है | जीवन और मृत्यु का संघर्ष चलता ही रहता है | कुछ लोग खुद हार जाते हैं तो कुछ जीवन को इस संघर्ष से मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं | समाधी लेते हैं,परिनिर्वाण करते हैं |
कंस के तामसिक साम्राज्य का अंत हो या महाभारत की कुरीतियों अन्यायों का, कृष्ण हर जगह मौजूद रहे | कृष्ण का शाब्दिक अर्थ काला ही नहीं होता, केंद्र भी होता है | अर्जुन के ज्ञान चक्षुओं को खोलने वाले कृष्ण ही दोनों सेनाओं में थे | अर्जुन ने तो विराट रूप में सिर्फ कृष्ण को ही देखा, महाभारत में वही आदि वही अंत बने रहे | कृष्ण एक शक्ति है जो हमारे शरीर में केन्द्रित है | हमारे जन्म-मरण के बीच का केंद्र जो जीवन के समस्त क्रियाविधियों को अपने गुरुत्वीय बल से संतुलित रखता है | अंधकार और प्रकाश के बीच की वो कड़ी जो हर टिमटिमाते दीये की लौ में तेज भरता है | काले कृष्ण कि प्रकाशमयी लीलाएं, मानव जीवन को सद्मार्ग दिखाती हैं |
कृष्ण एक महाकाव्य हैं जिसकी हर एक पंक्ति गूढ़ रहस्य समेटे है | जीवन का सरल सूत्र रुपी मोती इस महाकाव्य के सागर में पैठने पर मिल सकता है | भगवान श्रीकृष्ण आपके जीवन नैया के खेवनहार हैं, आपको हर मझधार से उबारें और आगे बढायें |
जय श्री कृष्ण !!!
रविवार, 29 अगस्त 2010
क्या करूँ...
कर्मवीर की शिक्षा से मैं जब बना कर्मवीर सबल,
खेत रहा मैं हर रण में, शायद मेरा भाग्य निर्बल |
लक्ष्य साध्य-निर्बाध-साक्ष्य था, फिर कैसी ये चूक,
समतल सुखद राहों पे, पग छलनी करते किंसुक |
उठाई कितनी तुमुल गर्जना जो हुई मद्धम व्योमगत,
अब किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा, क्या हो जाऊं जग विरत |
रविवार, 22 अगस्त 2010
विवेकानन्द के प्रति
हम में भी है फौलाद हृदय
शनिवार, 21 अगस्त 2010
उलझन
क्या खोया और क्या है पाया
खाली हाथ और खुली मुट्ठियाँ,
आवागमन की गज़ब ये माया
उलझन कैसी और कैसा र्द्वंद
भ्रम कैसा और कैसा छलावा
मिथ्या जगत की थोथी बातें
सत्य आलोपित, असत्य निवाला
बुद्ध बन गया, महावीर बन गया
लगा ली श्मशान की धुनी सर पे
बैठे खोज रहे सत्य कंदराओं में
जो छिपा है स्वयं के अंतर में