स्वागतम

"मेरे अंतर का ज्वार, जब कुछ वेग से उफ़न पड़ता है,
शोर जो मेरे उर में है,कागज पर बिखरने लगता है |"
ये अंतर्नाद मेरे विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसे मैं यहाँ आपके समक्ष रख रहा हूँ |
साहित्य के क्षेत्र में मेरा ये प्रारंभिक कदम है, अपने टिप्पणियों से मेरा मार्ग दर्शन करें |

रविवार, 8 मार्च 2009

होली की हार्दिक शुभकामनायें....



सजी हुई है रंगों की महफ़िल,सजा हुआ संसार है

मदमस्त

हो सब झूम रहे, चढा अजब खुमार है |

है यौवन मद में झूम रहा, आह्लादित हो घुम रहा ,

और फड़कती रगों से हर क्षण फ़ुट रहा झंकार है |

भंग की सरिता कहीं
बह रही, कहीं रंगों की फुहार है,

क्या राजा और क्या रंक , सब पर फाल्गुन की खुमार है |

कोंपल नए फूटे ठुन्ठो से, वृद्धों पे छाई तरुणाई है,

कामदेव की मधुर कल्पना से ये धरती आज नहायी है |

है ऋतुराज का साम्राज्य ऐसा हर कोई हुआ मलंग है,


देख दशा नव यौवन की स्वयं चितेरा दंग है |

है थाप कहीं पे ढोलक की, कहीं चंग और मृदंग है,

सब झूम रहे सब घूम रहे, हर तरफ यही रंग है |

हवा बेढंगी बह रही है , जैसे अल्हड तरुणाई है ,

कभी तेज़ तो कभी मंद, जैसे छाई अलसाई है |

है मेलजोल का पर्व, सभी रंग मिल आपस में कह रहे,

ना कोई राजा ना कोई रंक, सब एक रौ में बह रहे |

शनिवार, 7 मार्च 2009

आगाज़

यादों के दरख्तों पे अरमानों की बुलबुल लेती है जब करवटें,

बागबान भी मचल उठता है मरहलों से गुजरे कारवां की तलाश में |

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

मेरी पहचान....


अन्वेषण स्वयं का
जैसे
अनंत शून्य में भटकना
क्या सत्य है मेरा ,
या कोई मिथ्या
अंतरद्वंद या छलावा
मैं बुद्ध नहीं
महावीर भी नहीं हूँ
जो संसार के कष्टों से भाग चलूँ |
नहीं बैठ सकता कंदराओं में ,
वृक्षों के नीचे
और करूँ अन्वेषण
सत्य का
कष्टों से मुक्ति का |
खुद को ही सहेजना
सुलझाने की जगह
जीवन के जटिलता का |
यह अपराध है
जो मैं नहीं कर सकता |
मैं बंद पड़ी गांठों
को खोलता हूँ
अपनी असमर्थ अँगुलियों से |
मेरा सत्य
यहीं बंद है |
मेरे अंतर के माया-जाल
की कुंजी यहीं बंधी है |
बस गांठें खोल लूँ |
मैं ब्रम्ह हूँ
आभास मुझे है
मैं स्वयं सृष्टी हूँ
फिर क्यूँ
ये अंतर्द्वंद
ये विचारों का मंथन ,
कुछ अनुतरित सा हो जाता हूँ |
जब कोई करता है
मेरा अन्वेषण |

रविवार, 2 नवंबर 2008

आवाज़ तुम देना

एक गीत मैं लिखूंगा
आवाज़ तुम देना,
मैं रागों को सजाऊँ
साज़ तुम देना एक ....

जोडेंगे टुकड़े -टुकड़े
हम आज अपने मन के ,
गुन्थेंगे एक सुर में
हर भाव जीवन के
ना हो कभी ख़तम जो
वो शाम तुम देना एक ...

अगर हो जायेंगे मदमस्त
थाम लेना मेरी बाहें,
गर हम भटक गए तो
सुलझाना मेरी राहें ,
तुम अमृत-घट से उंडेल
जाम मुझको देना एक ...

हम मन के नाव खेवें
भावों के इस लहर में ,
हर फिक्र को डुबो दे
यादों के भंवर में
हमें ले जाये जो किनारे
वो मझधार तुम देना एक ...

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

अंतर-नाद


इक तान सुना दे मनमीता जो कलुष मन के धो दे ,
बिखरा पड़ा है जीवन मेरा जो एक सूत में उसे पिरो दे
बस एक तान सुना दे मुझको जो झंकृत कर दे मन को ,
मनमीत बहा दे निश्चल प्रेम और निर्मल कर मेरे जीवन को
मेरे मन के ढीले तारों को आज नीज हाथों से तू कस दे,
छेड़ दे ऐसी राग मधुर शायद आज हम फिर से हँस दे
आज मेरी टूटती साँसों में, अपनी ही सांस अमर भर दे,
नासूर बन गए घाव जीवन के तू बस छूकर मरहम कर दे

बुधवार, 3 सितंबर 2008

बारिश और मैं ...










हम भी भींगे थे पहली बारिश में,
मगर हालात कुछ और था |
हँसी थी चेहरे पर मगर,
दिल में जज्बात कुछ और था |
वो पहली ठंढी फुहार,
दिल की अगन बुझा न सकी |
मेरे सुलगते जख्मों को,
मरहम बन सहला न सकी |
हम भींगे थे बारिश में,
अपने आसुओंको छुपाने के लिए |
जज्बात के बवंडर में,
बस खुद ही डूब जाने के लिए |

अहसास

फूलों को मुस्कुराने दो
कलियों को खिलखिलाने दो
मुझे तो है बस काँटों से वास्ता
जिनकी चुभन मुझे देती हैं
अहसास फूलों की कोमलता का
उनकी चपलता का
मेरे शरीर से टपकते लहू
बोध कराते हैं मुझे
सुर्ख गुलाब का
मेरी आहों से लगता है
जैसे फूल मुझपे हँसे हों
मेरी बेबसियों पे उनके
ये कहकहे हों
मुझे प्यारी लगती है काँटों की चुभन
जो अंतर-हृदय को सहलाते हैं
मुझे
अपनेपन का अहसास दिलाते हैं.

सतत् चरैवेति...

मेरे मन तू और बहक
चूमने को आकाश की ऊँचाईयां
देख बौनी होती धरती को
और खोज उसमे अपनी परछाईयां
उड़ता चल पहाड़ों के ऊपर से
वो भी सिर झुका लें
उड़ता चल जंगलों के ऊपर से
वृक्ष भी ईर्ष्या से जल उठें
उड़ता चल सागर के ऊपर से
जो तुम्हें इक बूँद दिखे
मन मेरे तू इतना मचल
आकाश भी छोटा लगे
राह में आंधियां भी आएँगी
तेरी शक्ति को पिघलायेंगी
बादलों के गर्जन संग तुम्हें
चमक चमक डरायेंगी
मन मेरे तू कभी न डर
तू इनसे भी विकराल है
हुंकार भर के आगे बढ़
तू ही तो महाकाल है
पीछे रह जाएँगी
मुश्किलें जो आएँगी
फिर वही आगे बढ़
राह तुझे बतलायेंगी
इसलिए तू बन अविचल
बढ़ता चल
बस बढ़ता चल

मौत...



असर देखो मौत का किस कदर हो रहा है,
पूनम के बाद चाँद हर रात घट रहा है |

ग़दर के बाद

(मित्रों हमारे देश ने बहुत सारे जातिगत ग़दर देखें हैं,
फिल्म Bombay के दृश्यों को देखने के बाद कवि हृदय
मचल उठा और ये बानगी कागज़ पर उतरती चली गयी.....)












है
शह खामोश बहुत ही, जरूर कहीं कुछ बात हुई है,
सन्नाटे का है शोर चारों तरफ, क्या अज़ब हालात हुई है |

वीराने बस रहे हैं माय्खानो में, कसक जज्बात हुई है,
और टूटकर बिखरे पैमानों में, दर्दे आह हुई है |

जो भटकते थे कूचों* में दिलेजाना के कभी,
आज क्यूँ उनमे खूने-वह्शियत सवारन हुई है |

जिन झरोखों में परियां कभी दिख जाती थीं,
देखा हर कांच हर कड़ी तबाह हुई है |

है ज़हर ये कैसा सिर्फ वीराने जी रहे हैं,
इंसानियत बदल गयी, कैसी तिलस्मात हुई है |